Lekhika Ranchi

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रंगभूमि--मुंशी प्रेमचंद




नायकराम-निकलनेवाले को कुछ कहता हूँ। यह देखो, ठाकुरदीन के हाथ में रखे देता हूँ।
जगधर-क्या ताकते हो भैरों, ले पड़ो।
सूरदास-मैं नहीं लड़ता।
नायकराम-सूरदास, देखो, नाम-हँसाई मत कराओ। मर्द होकर लड़ने से डरते हो? हार ही जाओगे या और कुछ!
सूरदास-लेकिन भाई, मैं पेंच-पाच नहीं जानता। पीछे से यह न कहना, हाथ क्यों पकड़ा। मैं जैसे चाहूँगा, वैसे लड़ूँगा।
जगधर-हाँ-हाँ, तुम जैसे चाहना, वैसे लड़ना।
सूरदास-अच्छा तो आओ, कौन आता है!
नायकराम-अंधे आदमी का जीवट देखना। चलो भैरों, आओ मैदान में।
भैरों-अंधे से क्या लड़ूँगा!
नायकराम-बस, इसी पर इतना अकड़ते थे?
जगधर-निकल आओ भैरों, एक झपट्टे में तो मार लोगे!
भैरों-तुम्हीं क्यों नहीं लड़ जाते, तुम्हीं इनाम ले लेना।
जगधर को रुपयों की नित्य चिंता रहती थी। परिवार बड़ा होने के कारण किसी तरह चूल न बैठती थी, घर में एक-न-एक चीज घटी ही रहती थी। धनोपार्जन के किसी उपाय को हाथ से न छोड़ना चाहता था। बोला-क्यों सूरे, हमसे लड़ोगे?
सूरदास-तुम्हीं आ जाओ, कोई सही।
जगधर-क्यों पंडाजी, इनाम दोगे न?
नायकराम-इनाम तो भैरों के लिए था, लेकिन कोई हरज नहीं! हाँ, शर्त यह है कि एक ही झपट्टे में गिरा दो।
जगधर ने धोती ऊपर चढ़ा ली और सूरदास से लिपट गया। सूरदास ने उसकी एक टाँग पकड़ ली और इतनी जोर से खींचा कि जगधर धम से गिर पड़ा। चारों तरफ से तालियाँ बजने लगीं।
बजरंगी बोला-वाह, सूरदास, वाह! नायकराम ने दौड़कर उसकी पीठ ठोंकी।
भैरों-मुझे तो कहते थे, एक ही झपट्टे में गिरा दोगे, तुम कैसे गिर गए?
जगधर-सूरे ने टाँग पकड़ ली, नहीं तो क्या गिरा लेते। वह अड़ंगा मारता कि चारों खाने चित गिरते।
नायकराम-अच्छा, तो एक बाजी और हो जाए।
जगधर-हाँ-हाँ, अबकी देखना।
दोनों योध्दाओं में फिर मल्ल-युध्द होने लगा। सूरदास ने अबकी जगधर का हाथ पकड़कर इतने जोर से ऐंठा कि वह 'आह! आह!' करता हुआ जमीन पर बैठ गया। सूरदास ने तुरंत उसका हाथ छोड़ दिया और गरदन पकड़कर दोनों हाथों से ऐसा दबोचा कि जगधर की आँखें निकल आईं; नायकराम ने दौड़कर सूरदास को हटा लिया। बजरंगी ने जगधर को उठाकर बिठाया और हवा करने लगा।
भैरों ने बिगड़कर कहा-यह कोई कुश्ती है कि जहाँ पकड़ पाया, वहीं धर दबाया। यह तो गँवारों की लड़ाई है, कुश्ती थोड़े ही है।
नायकराम-यह बात तो पहले तय हो चुकी थी।
जगधर सँभलकर उठ बैठा और चुपके से सरक गया। भैरों भी उसके पीछे चलता हुआ। उनके जाने के बाद यहाँ खूब कहकहे उड़े, और सूरदास की खूब पीठ ठोंकी गई। सबको आश्चर्य हो रहा था कि सूरदास-जैसा दुर्बल आदमी जगधर-जैसे मोटे-ताजे आदमी को कैसे दबा बैठा। ठाकुरदीन यंत्र-मंत्र का कायल था। बोला-सूरे को किसी देवता का इष्ट है। हमें भी बताओ सूरे, कौन-सा मंत्र जगाया था?
सूरदास-सौ मंत्रों का मंत्र हिम्मत है। ये रुपये जगधर को दे देना, नहीं तो मेरी कुशल नहीं है!
ठाकुरदीन-रुपये क्यों दे दूँ, कोई लूट है? तुमने बाजी मारी है, तुमको मिलेंगे।
नायकराम-अच्छा सूरदास, ईमान से बता दो, सुभागी को किस मंत्र से बस में किया? अब तो यहाँ सब लोग अपने ही हैं, कोई दूसरा नहीं है। मैं भी कहीं कँपा लगाऊँ।
सूरदास ने करुण स्वर में कहा-पंडाजी, अगर तुम भी मुझसे ऐसी बातें करोगे, तो मैं मुँह में कालिख लगाकर कहीं निकल जाऊँगा। मैं पराई स्त्री को अपनी माता, बेटी, बहन समझता हूँ। जिस दिन मेरा मन इतना चंचल हो जाएगा, तुम मुझे जीता न देखोगे। यह कहकर सूरदास फूट-फूटकर रोने लगा। जरा देर में आवाज सँभालकर बोला-भैरों रोज उसे मारता है। बिचारी कभी-कभी मेरे पास आकर बैठ जाती है। मेरा अपराध इतना ही है कि मैं उसे दुतकार नहीं देता। इसके लिए चाहे कोई बदनाम करे, चाहे जो इलजाम लगाए, मेरा जो धरम था, वह मैंने किया। बदनामी के डर से जो आदमी धरम से मुँह फेर ले, वह आदमी नहीं है।
बजरंगी-तुम्हें हट जाना था, उसकी औरत थी, मारता चाहे पीटता, तुमसे मतलब?
सूरदास-भैया, आँखों देखकर रहा नहीं जाता, यह तो संसार का व्यवहार है; पर इतनी-सी बात पर कोई बड़ा कलंक तो नहीं लगा देता। मैं तुमसे सच कहता हूँ, आज मुझे जितना दु:ख हो रहा है, उतना दादा के मरने पर भी न हुआ था। मैं अपाहिज, दूसरों के टुकड़े खानेवाला और मुझ पर यह कलंक! (रोने लगा)
नायकराम-तो रोते क्यों हो भले आदमी, अंधे हो तो क्या मर्द नहीं हो? मुझे तो कोई यह कलंक लगाता, तो और खुश होता। ये हजारों आदमी जो तड़के गंगा-स्नान करने जाते हैं, वहाँ नजरबाजी के सिवा और क्या करते हैं! मंदिरों में इसके सिवा और क्या होता है! मेले-ठेलों में भी यही बहार रहती है। यही तो मरदों के काम हैं। अब सरकार के राज में लाठी-तलवार का तो कहीं नाम नहीं रहा, सारी मनुसाई इसी नजरबाजी में रह गई है। इसकी क्या चिंता! चलो भगवान का भजन हो, यह सब दु:ख दूर हो जाएगा।
बजरंगी को चिंता लगी हुई थी-आज की मार-पीट का न जाने क्या फल हो? कल पुलिस द्वार पर आ जाएगी। गुस्सा हराम होता है। नायकराम ने आश्वासन दिया-भले आदमी, पुलिस से क्या डरते हो? कहो, थानेदार को बुलाकर नचाऊँ, कहो इंस्पेक्टर को बुलाकर चपतियाऊँ। निश्चिंत बैठे रहो, कुछ न होने पाएगा। तुम्हारा बाल भी बाँका हो जाए, तो मेरा जिम्मा।
तीनों आदमी यहाँ से चले। दयागिरि पहले ही से इनकी राह देख रहे थे। कई गाड़ीवान और बनिए भी आ बैठे थे। जरा देर में भजन की तानें उठने लगीं। सूरदास अपनी चिंताओं को भूल गया, मस्त होकर गाने लगा। कभी भक्ति से विह्नल होकर नाचता, उछलने-कूदने लगता, कभी रोता, कभी हँसता। सभा विसर्जित हुई तो सभी प्राणी प्रसन्न थे, सबके हृदय निर्मल हो गए थे, मलिनता मिट गई थी, मानो किसी रमणीक स्थान की सैर करके आए हों। सूरदास तो मंदिर के चबूतरे ही पर लेटा और लोग अपने-अपने घर गए। किंतु थोड़ी ही देर बाद सूरदास को फिर उन्हीं चिंताओं ने आ घेरा-मैं क्या जानता था कि भैरों के मन में मेरी ओर से इतना मैल है, नहीं तो सुभागी को अपने झोंपड़े में आने ही क्यों देता। जो सुनेगा, वही मुझ पर थूकेगा। लोगों को ऐसी बातों पर कितनी जल्द विश्वास आ जाता है। मुहल्ले में कोई अपने दरवाजे पर खड़ा न होने देगा। ऊँह! भगवान् तो सबके मन की बात जानते हैं। आदमी का धरम है कि किसी को दु:ख में देखे, तो उसे तसल्ली दे। अगर अपना धरम पालने में भी कलंक लगता है, तो लगे, बला से। इसके लिए कहाँ तक रोऊँ? कभी-न-कभी तो लोगों को मेरे मन का हाल मालूम ही हो जाएगा।
किंतु जगधर और भैरों दोनों के मन में ईर्ष्‍या का फोड़ा पक रहा था। जगधर कहता था-मैंने तो समझा था, सहज में पाँच रुपये मिल जाएँगे, नहीं तो क्या कुत्तो ने काटा था कि उससे भिड़ने जाता? आदमी काहे का है, लोहा है।
भैरों-मैं उसकी ताकत की परीक्षा कर चुका हूँ। ठाकुरदीन सच कहता है, उसे किसी देवता का इष्ट है।

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